लोकतंत्र में ह्रास और पुनर्निर्माण की प्रक्रिया

विकास और परिवर्तन के बीच संतुलन बना कर ही सही मायनों में समानता, बंधुता, समाजिक संतुलन को प्राप्त किया जा सकता है।

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विश्व के किसी भी लोकतंत्र में निरंतर ह्रास एवं पुनर्निर्माण की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। चुनावी प्रक्रिया पूरी होने के बाद देश का प्रतिनिधित्व देशांतर रेखाओं की तरह सीधे सरल शंकु के शीर्ष बिंदु पर पहुंच जाता हैं। अब बारी आती है देश के विकास के लिए क्या-क्या सुधारात्मक उपाय जरूरी है तब सत्ता को कायम रखने के लिए कौन-कौन से रीति- रिवाज, प्रथा- परंपराओं की जरूरत होती है। हमारा प्रतिनिधित्व सिद्धांतों की समीक्षाएं प्रस्तुत करता है। चुनावी प्रक्रिया के समय पूर्वाग्रहों से ग्रसित टुकड़े- टुकड़े करके अपनाते हुए विकास की प्रक्रिया चलती है जो क्षणिक और क्षणभंगुर होता है। विकास और परिवर्तन के बीच संतुलन को कायम रखना अति आवश्यक होता है। प्रचंड बहुमत से चुनी हुई सरकारों को विवेकशून्य आवेगो का दमन कर विकास का मूलभूत ढांचा तैयार करना चाहिए। लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व की नई पीढ़ी को अपनी पुरानी विरासत को ठुकरा कर शताब्दियों से चली आ रही दूषित परंपरा का परित्याग कर देना चाहिए। तभी देश की प्रगति सर्वथा संभव हो सकती है। भारतीय लोकतंत्र इस समय अपने चुनावी रंग में रंगा हुआ दिखाई दे रहा है। लोकतंत्र की आधारशिला जनपुंज के मजबूत खंभों पर खड़ी हुई है न कि खोखली कर्म के कसौटी पर! इसलिए यह आवश्यक हो जाता है की तृष्णा, लालसा को त्याग कर युक्तियुक्त विकास के लिए निर्णय लिए जाएं। विकास के तथ्यों का सही-सही ज्ञान लोकतंत्र के ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से होना चाहिए। अर्धव्यास या वृत का चतुर्थांश लेकर विकास की रेखाएं नहीं खींची जा सकती विकास की रेखाएं संपूर्ण वृत में होनी चाहिए तभी निर्देशित प्रतिनिधित्व में स्वतंत्रता समानता बंधुता जैसे सिद्धांतों के संबंध में का मार्ग प्रशस्त होगा है।

सत्य प्रकाश सिंह
केसर विद्यापीठ इंटर कॉलेज प्रयागराज,उत्तरप्रदेश

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