संविधान का वह हिस्सा जो लोकतंत्र पर कलंक है
सबसे समृद्ध लोकतंत्र होने का दावा करने वाले भारत में क्या लोकतंत है?
एक शब्द है – “सेक्युलर” जिसे भारत के प्रस्तावना में 1975-76 में 42वां संशोधन कर इंदिरा गांधी की सरकार ने जोड़ा था। सेक्युलर शब्द लैटिन भाषा का है जिसे पश्चिमी देशों ने (जहां सरकारें चर्च से चलाई जाती थीं) धार्मिक उच्च पदाधिकारियों से सरकारी संस्थानों और राज्य का प्रतिनिधित्व करने हेतु शासनादेशित पृथककरण के सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया।
सेक्युलरिज्म यानी धर्मनिरपेक्षता के मूलतः दो प्रस्ताव हैं।
पहला: राज्य के संचालन एवं नीतिनिर्धारण में मजहब का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।
दूसरा: सभी धर्म के लोग कानून, संविधान और नीति के सामने समान हैं।
इस शब्द को जोड़ने के पीछे तात्कालीन सरकार की नीयत क्या थी यह आगे स्पष्ट हो जाएगा। लेकिन उस समय सरकार का तर्क था कि अनेकता में एकता भारत कि पहचान है इसलिए सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने के लिए शासन में धार्मिक हस्तक्षेप रोका जाना चाहिए और “धर्मनिपेक्ष” शब्द इस आवश्यकता को पूरा कर देगा।
लेकिन यह तर्क और सोच झूठ और पक्षपात के सूत्रपात के अलावा और कुछ नहीं था। यदि नीयत निष्पक्ष होती तो पूर्व (1952) में धार्मिक आधार पर किए संशोधित प्रावधानों को समाप्त कर दिया जाता या कोई नया प्रस्ताव लाकर सबके लिए समान प्रावधान किए जाते।
दो उदाहरण इस नीयत को और अधिक स्पष्ट कर देंगे।
पहला उदाहरण है:
1951 में लाया गया धार्मिक कानून(हिन्दू कोड बिल) जो सरकार को यह शक्ति देता है कि हिन्दू मंदिरों पर वह अपना स्वामित्व स्थापित कर मंदिरों का संचालन कर सकता है, दान से आए राजस्व का किसी अन्य गैर धार्मिक प्रयोजनों के लिए प्रयोग में ला सकता है। जिसमे गैर हिंदू या मुस्लिम धार्मिक स्थलों के रखरखाव में खर्च कर सकता है।
दूसरी तरफ यह कानून मुसलमानों के धार्मिक संस्थानों, मदरसों आदि को लगातार वित्तीय सहायता दे कर उनके संचालन को बढ़ावा देने की बात करता है। जिससे उन्हें उनके धर्म के प्रचार और धार्मिक मतारोपन में सहायता मिल सके।
इस बात से किसी को कोई आपत्ति नहीं कि किसी धर्म और उनके धार्मिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सरकार वित्तीय और सामाजिक संरक्षण कि व्यस्था करता है। लेकिन यह दूसरों के धार्मिक अधिकारों के कीमत पर किया जाए यह सामाजिक सौहार्द की बात वाले तत्कालीन सरकार के नियत पर एक प्रश्नचिन्ह है।
दूसरा उदाहरण 1956 का है:
जब नेहरू सरकार द्वार “हिंदू कोड बिल” पर अम्बेडकर के विरोध और इस विरोध में कैबिनेट से इस्तीफे के बावजूद “हिंदू लॉ” भारत के “हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख्खो पर थोप दिया गया (इसके कानून के अन्तर्गत मुस्लिम नहीं आते है)।
इस कानून के अन्तर्गत सरकार इन समुदायों के धार्मिक मामलों, विवाह, उत्तराधिकार, तलाक़ आदि में हस्तक्षेप कर अपना निर्णय दे सकता है, लेकिन प्रावधानों के अनुसार मुसलमान अपने पर्सनल लॉ के हिसाब से चलते रहेंगे। आसान भाषा में कहा जाय तो इनपर सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।
भारत के अतिरिक्त संसार में ऐसा कोई भी देश नहीं है जहां अलग – अलग संप्रदायों और वर्गों के लिए अलग अलग कानून विद्यमान है। अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में पूर्णतया समान कानून लागू है। वहां की सरकार किसी धर्म विशेष को उनके पर्सनल लॉ के मुताबिक चलने कि अनुमति नहीं देता।
इसलिए धर्मनिरपेक्षता / सेक्युलर भारत के अम्बेडकर और गांधी के परिभाषा को अमलीजामा पहनाने के सुप्रीम कोर्ट ने समय समय पर सामान नागरिक संहिता अथवा समान नागरिक कानून पर विशेष रूप से जोर देकर सरकारों को इस कानून को अमल में लाने की बात करता रहा है।
समान नागरिक संहिता का अर्थ एक सेक्युलर या धर्मनिरपेक्ष कानून है जो सभी धर्म के लोगो पर सामान रूप से लागू होता है। दूसरे शब्दों में, अलग अलग धर्मों के लिए अलग सिविल कानून ना होना ही समान नागरिक संहिता की मूल भावना है। इसलिए इस कानून से अभिप्राय कानूनों के ऐसे से समूहों से है जो देश के समस्त नागरिकों चाहे वह किसी धर्म, जाती, या क्षेत्र से संबंध रखता हो, पर लागू होता है। यह किसी भी धर्म या जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर है। लेकिन कोई भी सरकार अब तक यह करने की जोखिम उठाना नहीं चाहत इसके पीछे मुख्य रूप से तीन कारण है जिससे सरकारें इसपर अमल नहीं करती हैं।
इसमें पहला है – देश और देश के बाहर के मुसलमानों का विरोध जिसके कारण उनका एकमुश्त वोट बैंक प्रभावित होने का डर। दूसरा, हिंदू विरोधी वामपंथी कार्यकर्ता और सरकारी टुकड़ों पर पलने वाले पत्रकार, वकील और अन्य बुद्धिजीवी वर्ग के सामूहिक विरोध। और तीसरा कारण यह की सरकारें इस मामले में कोर्ट के बात को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं, क्योंकि कोर्ट न्यायपालिका तक ही अपना अधिकार सीमित रखता है।
अब विचार करने वाली बात है कि 1956 में अम्बेडकर के विरोध के बावजूद हिंदू कोड बिल ( हिंदू कानून) देश भर के हिंदुओं पर जबरदस्ती थोप दिया जाता है, लेकिन अम्बेडकर के द्वारा वर्णित संविधान के भाग – 4 में अनुच्छेद 44 राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत में “यूनिफॉर्म सिविल कोड” की बात को नजरअंदाज कर दिया गया है।
सवाल यह कि क्या यह अम्बेडकर के विचारों की हत्या नहीं है?
पूर्व के सरकारों के नियत पर इसलिए भी संदेह किया जाना चाहिए कि समान नागरिक संहिता का विरोध करने के लिए ही 1972 में “मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड” की स्थापना की गई थी। यह एक प्रकार से राष्ट्र सर्वपरी में विश्वास नहीं करता, वह विधि सर्वोच्चता के सिद्धांत को भी नहीं मानता, “उम्मा या उमा” के सिद्धांत को अधिक तवज्जो देता है। जिसे तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने मान्यता भी दे दी।
इसके गठन के 3 साल बाद ही समान कानून पर अमल किए बिना और इतने बड़े विरोधाभास की स्थिति में भी संविधान में संशोधन कर प्रस्तावना में सेक्युलर शब्द जोड़ा गया।
इस सेक्युलर शब्द के जोड़े जाने का विरोध पूर्व में अम्बेडकर जी ने किया था, और समान नागरिक कानून के पक्ष में कहा था कि “ऐसे अनेक अधिनियमों का उल्लेख किया जा सकता है जिनसे यह सिद्ध हो जाएगा कि भारत में एक नागरिक संहिता मौजूद है जो पूरे देश में व्यवहार में लाई जाती है।”
उनका यह भी कहना था कि “मैं इस कथन को चुनौती देता हूं कि मुसलमानों के निजी कानून सारे भारत में अटल तथा एकविधी था।”
अब सवाल उन लोगो से किया जना चाहिए जो वर्तमान सरकार द्वारा नए कानून के निर्माण और संशोधनों (CAA, NPR, NRC etc) पर संविधान के हत्या करने का आरोप लगते है।
संविधान की प्रति और अम्बेडकर और गांधी की तस्वीर लेकर सड़कों बैठने वाले लोग जो हिंदू बहुसंख्यक समाज और संविधान द्वारा शोषण कि बात करते है क्या अम्बेडकर के संविधान को एक बार फिर से मूल रूप में स्वीकार करेंगे? जिसमे केवल संविधान में वर्णित नियमों के अनुसार ही देश का संचालन होगा।
क्या आज समान नागरिक संहिता या समान नागरिक कानून को देश का वह वर्ग र्निविरोध स्वीकार करेगा जो अंबेडकर और गांधी के नाम पर विक्टिम कार्ड खेल रहा है। उन नेताओ को यह स्विकार होगा जिनके राजनीति का आधर ही अंबेडकर, गांधी और उनके सिद्धांत है।
इसलिए इस गणतंत्र पर देश का बड़ा वर्ग जो इन गैर संवैधानिक, संविधान के प्रावधानों के कारण अपने अधिकारों से वंचित है और अपने के लिए सरकार से बोल भी नही सकता और यह कहना गलत भी नहीं होगा कि “हर मोर्चे पर पक्षपात का शिकार है भारत का बहुसंख्यक हिंदू समाज”।
आदित्य मिश्रा